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महात्मा गाँधी को अहिंसा का पुजारी और अहिंसक देवदूत माना जाता रहा है| यदि कहीं भी अहिंसा की बात होती है तो गाँधी उसका पर्याय होते हैं| किन्तु क्या वास्तव मैं गाँधी अहिंसक थे? क्या कभी इस पर समाज ने विचार किया? या फिर भेडचाल के तहत हम ऐसा मानते या सोचते आये हैं.
आचार्य रजनीश “ओशो” कहते हैं की ” जितना ही हिंसक चित्त हो, उतना ही ममत्व से भरा हुआ चित्त भी होता है| हिंसा और ममत्व साथ साथ जीते हैं| अहिंसक चित्त ममत्व के भी बाहर हो जाता है| ममत्व हिंसा ही है| अहिंसा केवल उसके चित्त मैं पैदा होती है, जिसका अपना पराया मिट गया हो| जो मैं की बात कर रहा हो और अहिंसा की बात कर रहा हो, तो जानना की अहिंसा झूठी है| क्योंकि मैं के आधार पर अहिंसा का फूल खिलता ही नहीं| मेरे के आधार पर अहिंसा के जीवन को कोई विकास नहीं होता|”
तो क्या गाँधी वास्तव मैं अहिंसक थे जब भगतसिंह को फांसी दिए जाने के सन्दर्भ मैं उन्होंने जो रुख अपनाया?
क्या गाँधी वास्तव मैं अहिंसक थे जब विभाजन के समय पाकिस्तान से लाशों से भरी रेल गाड़ियों के आने के बाद हिंदुस्तान की तरफ से एक हलकी प्रतिक्रिया दी गयी थी? और भी न जाने कितने क्या है यही एक प्रश्न के लिए?……
क्या गोडसे हिंसक थे जो उन्होंने अहिंसा के ढोंग को सहन नहीं किया?
विश्वास और श्रद्धा मैं बड़ा फर्क है| विश्वास वह है जो हम संदेह को बिना हल किये ऊपर से आरोपित कर लेते हैं| श्रद्धा वह है जो संदेह के गिर जाने से फलित होती है| तो क्या लोगों का (कुछ) गांधीवाद मैं विश्वास है या श्रद्धा? या फिर संदेह के भय से पकड़ लिए गए आधार………..
अहिंसा केवल उसके चित्त मैं पैदा हो सकती है जिसका अपना-पराया मिट गया हो और गाँधी का चित्त हिंसा के एक गहरे आधार पर अटक गया था जिसे तथाकथित अहिंसा कहा गया| यह रत्ती भर भी अहिंसा नहीं थी| अहिंसा का अर्थ सिर्फ मार-काट न करना, दया-भाव रखना ही नहीं है अपितु अपने पराये के खींची गयी सीमा से पार हो जाना, उसे मिटा देना है|
असल मैं जो अहिंसक होना हो उसे मेरे का भाव ही छोड़ देना पड़ता है| मेरे का भाव ही हिंसा है| फिर क्यों क्रांतिकारियों से गाँधी का ईतेफ़ाक नहीं था? क्यूँ क्रांतिकारी बलिदानियों को गाँधी और उनके अनुयायियों ने पराया समझा?
क्या गाँधी की अहिंसा प्रभावित करने की व्यवस्था भर थी?
न जा ने कितने प्रश्न है जो अनुत्तरित है या हम उनका सीधा और सही उत्तर जानना नहीं चाहते| सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं है जो हम संसार के सम्बन्ध मैं उठाते है| सबसे बड़े प्रश्न वे हैं जो हमारे मन के द्वन्द से उठते हैं और अपने मन द्वन्द को देख पाने के लिए विचार चाहिए, चिंतन चाहिए, मनन चाहिए………और ये प्रश्न मेरे मन के द्वन्द से आये हैं| इससे इतर इनका कोई उद्देश्य नहीं है………
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