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भारतीय मूल की एक महिला सविता हलपन्नवार ने बस इसीलिए अपने प्राण खो दिए क्योंकि डॉक्टर उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को गिराने के लिए मना कर रहे थे कारण, कैथोलिक धर्म अबॉर्शन की इजाजत नहीं देता|कैथलिक कानून के नाम पर यदि किसी महिला का यह जानते हुए भी कि उसकी जिंदगी को खतरा है, गर्भपात नहीं किया जाता है तो यह अपराध है धर्मं नहीं |
धर्मं है क्या? महाकवि तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस में बालकाण्ड में कहा है की विवेक पूर्ण भक्ति ही धर्मं है. वे कहते हैं की “हरी हर विमुख धर्मं रत नाही” अर्थात इश्वर से जो विमुख है वो धर्मं नहीं. इश्वर से विमुख होना, उसके संपूर्ण श्रष्टि के प्रति प्रेममय न होना है. फिर उसी ईश्वरीय अंश को कष्ट देना धर्म की ढाल बनाकर, क्या मोक्ष दिला पायेगा या इश्वर के करीब लेजा पायेगा? कदापि नहीं…
धर्म जीवन के लिए है नाकि जीवन धर्म के लिए. यदि जीवन है तभी धर्मं का अस्तित्व है. कैथोलिक धर्म के अंतर्गत जीवित भ्रूण को मारना अक्षम्य पाप है किन्तु एक जीवित महिला को मरते देना पाप की श्रेणी में नहीं आता, ये कैसा विचित्र धर्मं है? और कैथोलिक ही नहीं वरन तमाम अन्य धर्मों में भी इसी तरह की विचित्रता देखने को मिल जायेगी.
धर्मं का पालन बड़े यत्ने पूर्वक करना चाहिए किन्तु जीवन के मूल्य पर नहीं. जीवन स्वयं अपने आप में सबसे बड़ा धर्मं है..इश्वर के बारे में जितना झूठ कहा गया है या कल्पनाएँ की गयी हैं उतनी अन्य किसी के बारे में नहीं. अनेकानेक धर्मों में परमात्मा के बारे में न जाने कितने शाश्त्र, पुस्तकें लिखी गयीं हैं, किन्तु परमात्मा के बारे में कुछ है जिसको कहना संभव नहीं है. पूरी दुनियां में हम लोगों को बड़ी अजीब बातें सिखाते हैं. जिनको परमात्मा का कुछ पता नहीं उनको हम उसके प्रति आस्था सिखा देते हैं, रीति-रिवाजों का पालन करना धर्मं बना देते हैं. इस तरह व्यक्ति न तो धर्म जान पता है न इश्वर क्यूंकि जो मान लेगा वो जान नहीं पायेगा. और जब धर्म या इश्वर को नहीं जाना तो जीवन कैसे जाना जायेगा? अत: धर्म और जीवन दोनों को जानना परमावश्यक है. दोनों के बीच के अंतर को भी समझना ज़रूरी है.
झूठ हज़ार होते हैं, किन्तु सत्य अनेक नहीं हो सकते. सत्य एक ही होता है. यही कारन हैं अनगिनत धर्मं हैं, रिवाजें हैं किन्तु जीवन एक ही है. और वही परम सत्य है. धर्मं के अहंकार से युक्त व्यक्ति जीवन के सौंदर्य से बहुत दूर होता है. वे लोग उत्तम होते हैं जो सरल हो जाते हैं क्यूंकि जीवन अत्यंत सरल है. जब धर्मं जीवन से ऊपर समझा जाता है तो वह पैशाचिक हो जाता है और अपना मूल रूप खो देता है.
धर्मं जीवन जीने के लिए है है. कोई भी धर्मं म्रत्यु नहीं सिखा सकता. धर्मं एक समग्र सहभागिता है. आचार्य रजनीश-ओशो ने कहा है की धर्मं एक आनंद का विषय है. धर्मं के लिए दो स्थितियां है-धर्मं के प्रति ज्ञान की स्तिथि और धर्मं के प्रति अज्ञान की स्तिथि. एक धार्मिक और धर्मांध व्यक्ति में भेद इन्ही स्तिथितियों का है.
धर्मं के निर्वाह के लिए जीवन नष्ट नहीं किया जा सकता|
शुभ्संकल्पमास्तु …… ………
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