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संघर्ष के पल और नौकरी

kaduvi-batain
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रचना काल–३ दिसंबर २००५
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रात्रि का दूसरा पहर बीत चुका है| सारा शहर नीद में डूबा हुआ है| अनिमेष की आँखों से मानो नीद गायब हो चुकी है| कल पंद्रह दिन हो जायेंगे उसे दिल्ली आये हुए और अभी तक कोई रोजगार नहीं मिल सका है| घर से लाये रुपये भी ख़त्म हो चले हैं| अपने कसबे से जब दिल्ली चला था तो कितने अरमान थे; कितनी आशाएं संजोई थीं| उसने सुना था की दिल्ली में दो चार दिनों में ही नौकरी मिल जाती है| यहाँ तो बे-पढ़े लिखे लोग भी आसानी से सात आठ हज़ार कम लेते हैं| फिर वह तो ग्रेजुएट है और अंगरेजी भी बोल लेता है| पर यहाँ दफ्तरों के चक्कर काटते-काटते उसके जूते भी घिसने लगे हैं| घर जा कर क्या बताएगा? लोग क्या कहेंगे? पिताजी की ढलती उम्र और झुके कन्धों की याद उसे हलाकर रख देती है| इस उम्र में भी पिताजी को परिवार के भरण-पोषण के लिए दिन रात जुटे रहना और लगातार काम करते देख कर उसे खुद पे शर्म महसूस होती है|

यद्यपि वह बहुत प्रतिभावान है किन्तु उसे अब ये सब निरर्थक मालूम पड़ने लगा है| जीवन के सत्यों से एक एक करके परिचित होता जा रहा है| पिछले एक बरस से संघर्ष करते-करते अब थक सा रहा है| कहते हैं की जब ईश्वर किसी व्यक्ति को बेहतर इंसान बनाना चाहता है तो उसे सत्य की कसोटी पर कसकर परीक्षा लेता है और व्यक्ति को संघर्ष से परिचित करता है| किन्तु बिना अर्थ के इंसान का बेहतर बन पाना आज के आर्थिक दौर मैं बहुत मुश्किल है| यदि व्यक्ति बेहतर इंसान बन भी गया और अर्थ उपार्जन न कर सका तो उस बेहतरी का इस बेरहम दुनियां मैं क्या प्रयोजन?

शायद कल का दिन अच्छा हो-इसी विचार के साथ सोने का असफल प्रयास करने लगता है| घडी दो बजा रही है| नीद आने का नाम ही नहीं लेती| करवटें बदलते-बदलते अचानक उसकी आँख लग जाती है|
आज अखबार मैं नयी रिक्तियां हैं| वह जल्दी से तैयार होता है-इस उमंग में की एक न एक जगह तो उसका चुना जाना निश्चित ही है| निर्धारित स्थल पर साक्षात्कार के लिए कई सौ उम्मीदवार आये हुए हैं| अपना बायो-डाटा जमा कराकर , वह अपनी बारी का इंतज़ार करने लगता है| एक-एक पल बड़ी मुश्किल से कट रहा है| सोचता है की नौकरी मिल गयी तो कम से कम आठ हज़ार रुपये हर महीने तो मिल ही जायेंगे| हर महीने बचत करके और अपना खर्च तीन से चार हज़ार में चला कर, शेष राशि घर पर दिया करेगा| पहली तनख्वाह मिलते ही कसबे के दूध वाले का पुराना चुकता कर देगा| शादी को दो साल हो गए हैं, न तो पत्नी को कहीं घुमा सका है और न कुछ दिलवा सका है| अबकी बार उसे कहीं घुमायेगा भी और कुछ शोपिंग भी कराएगा| पिछले तीन चार बार से रक्षा-बंधन पर छोटी बहन को भी कुछ उपहार न दे सका है सो अबकी बार उसे भी अच्छा सा उपहार देगा| और न जाने क्या क्या कल्पनाएँ मन में चित्र र्रोप में उभर रही हैं| इन्हें वह स्वप्न में ही पूरा होता देख रहा है| तभी उसके साक्षात्कार का बुलावा आ जाता है| साक्षात्कार बढ़िया रहा| कुछ देर इंतज़ार करने को कहा गया है| मन बहुत ही प्रफुल्लित हो रहा है| अब तो पूरा विस्वास हो चुका है की यह नौकरी तो उसे मिल ही गयी समझो| आधे घंटे बाद एक अति-सुन्दर कमनीय युवती की मीठी ध्वनि उसे कल्पना लोक से वापिस लाती है|
–“एक्सक्यूज मी ! आर यु अनिमेष?”
–“एस मेम”
–“ओह! आई एम् सौरी टु से डेट यु आर नॉट शार्ट-लिस्टिड|”

उसका सर चक्र जाता है–सारे स्वप्न मिटटी के बर्तन की तरह भचाक से टूट जाते हैं| उसे लग रहा है की उसका खून सर्द हो चुका है| ऐसा नहीं की ये पहली बार हो रहा है-पर अब उसकी धेर्य शक्ती जबाब देने लगी है| वह बोझिल कदमों से घर की और चल देता है| उसे समझ नहीं आ रहा है की उसके साथ ऐसा लगातार क्यूँ हो रहा है? अभी पिछले माह ही पंडित जी ने कहा था की बुध की दशा शुरू हो रही है और जनम कुंडली में बुध भाग्य स्थान में बैठा है–अत:आर्थिक उन्नति का समय आ चुका है| सर्वत्र विजय होगी| पर लगता है की बुध को भी राहू ने ग्रसित कर लिया है|
यथार्थ को स्वीकारना ही जीवन जीने के कला है| जब चाहो और जो चाहो वो मिल जाये-ऐसा कब होता है| जीवन तो बस जीने का समझौता भर है| अपनों से दूर, परायों के शहर में, चिंता मग्न –यही नियति है| आखिर कब तक यूँ ही असफल प्रयास करते रहने पड़ेंगे? बार-बार मष्तिष्क में यही यक्ष प्रश्न कौंधता रहता है|

“प्रेमचंद्र की कहानियां” उठाकर पड़ने लगता है| उसे साहित्य से बेहद लगाव है| इन कृतियों को पड़ते पड़ते बहुधा वह पात्रों के साथ एकीकृत हो जाता था, पर आज उसमें भी कुछ रस नहीं आ रहा है| ह्रदय में अजीब सी बैचैनी महसूस हो रही है| उसका दम घुटने लगा है| वह अचेत होकर बिस्तर पर फ़ैल जाता है| कई चित्र घूमने लगते हैं| उसे दस हज़ार प्रतिमाह वेतन पर नौकरी मिल गयी है| पूरे मनोयोग से ऑफिस जाता है| नए लोग, नयी जगह धीरे-धीरे अपने से लगने लगने लगे हैं|वह अपार आनंद और आत्मविश्वास को स्वयं के अन्दर महसूस कर रहा है|

अब वह अनिमेष से मिस्टर अनिमेष हो गया है| महीना बीत चुका है और उसे वेतन भी मिल गया है| घर जाने को बस में सवार हो चला है| छः घंटे का सफ़र उसे छः दिनों के बराबर लग रहा है| बस की तेज़ रफ़्तार भी उसे बैलगाड़ी की तरह लग रही है| जल्द से जल्द घर पहुँच कर पिताजी के हाथों में वेतन रखने को आतुर हो चला है| अपनी पत्नी को अंक में भरकर, विरह के अनंत पलों की भरपाई करने को उसका ह्रदय व्याकुल हो रहा है| उसकी सांसों में नव-संचार उत्पन्न हो चला है|–अचानक से उसके तन्द्रा टूट जाती है| वह आँखें फाड़-फाड़ कर चरों तरफ कमरे की दीवारों को देखने लगता है| उसे न बस दिखाई देती है न वेतन………….किंकर्तव्यविमूढ़ सा खुद को ठगा सा महसूस करने लगता है| अपनी आँखें बंद करके बिस्तर पर फिर से पसर जाता है……
शायद फिर से, स्वप्ने में ही सही बस आ जाये और वह घर पहुँच कर अपने सोच को साकार होता देख सके…..

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