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बीते दो दिन पहले संत (तथाकथित) आश्रम बापू ने क्रोध के आवेग मैं एक मीडिया कर्मी को थप्पड़ जड़ दिया| आखिर एक शांत स्वभाव प्रतीत होने वाले पूज्यनीय इंसान एक बेहद मामूली बात पर अपना विवेक अज्ञानियों की तरह कैसे खो देते हैं, ये सवाल मेरे मन मैं बार बार उठ रहा था|
सहसा, बचपन मैं घर पर सुनी एक बोध कथा याद आ गयी..
“एक बार ज्ञानदेव महाराज को क्रोध आ गया तो उनकी बहन मुक्ताई ने कहा, “ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा, ” (ज्ञानेश्वर महाराज, आप अपना अकड़ना कम कीजिए)।
उन्होंने कहा, “विश्व रागे झाले बहन, संत मुखे बहावे पानी।” (यदि दुनिया आग-बबूला हो उठे तो संतों को चाहिए कि स्वयं पानी बन जायें)।
अग्नि को पानी बुझा देता है। अगर पानी में आग डाल दे तो क्या वह पानी को जला देगी या खुद बुझ जायेगी? संतों का स्वभाव भी ऐसा होना चाहिए। कोई कितना ही क्रोधित क्यों न हो, उन्हें शांत रहना चाहिए।”
किन्तु जो हुआ बह तो संत आचरण नहीं था…यहाँ चाह थी, मन के अन्दर की इच्छाएं थी| थप्पड़ मारने का कारन cameramen का भीड़ को कैमरे मैं क़ैद करना नहीं था जब संत जी दुर्घटना मैं अपने सकुशल बचने का कारन अपनी मंत्र शक्तियों का चमत्कार बता रहे थे और भीड़ उस पर जय जय कार कर रही थी| संत जी इस दुर्घटना मैं सकुशल बचने की परमात्मा की कृपा को अपनी दुकानदारी बढाने के लिए इस्तेमाल करना चाह रहे थे|
संत शब्द का अर्थ क्या है? बहुत खोजा (सार्थकता के सन्दर्भ मैं) तो पाया की संत संस्कृत व्याकरण की एक क्रिया से उत्पन्न है जिसका अर्थ है “अच्छा होना या सच्चा होना” ( to be goog or to be real).
पुन: बात आती है की अच्छे होने से या सच्चे होने का क्या तात्पर्य है? अच्छे, बुरे या सच्चे, झूठे के क्या मापदंड हैं? ये सामाजिक हैं या वैयक्तिक?
मेरे विचार से अच्छा-बुरा सापेक्षिक है|जो सभी के लिए समान रूप से कल्याणकारी/positive हो वही अच्छा है एवं बुरा इसके विपरीत|
किन्तु क्या क्रोध पर वास्तव मैं पूर्ण नियंत्रण किया जा सकता है? मेरे विचार से नहीं…
काम, क्रोध, मद लोभ और मोह ये सभी तत्व सभी मनुष्यों मैं उपस्थित होते हैं| यदि एक भी तत्व अनुपस्थित हो तो व्यक्ति का व्यक्ति होना ही संभव नहीं| ये composition हैं मानव मष्तिष्क की, मानव सोच की| किसी एक या अधिक तत्व की कमी या अधिकता व्यक्तियों को विभिन्न बनाती है…इस द्रष्टि से संत मे इन तत्वों की मात्रा अपने न्यूनतम स्तर पर होती है एवं आसुरिक प्रवति वाले मनुष्यों मैं चरम पर…
समाज मैं विभिन्न प्रकार के लोग हैं…कोई अत्यधिक कामी तो कोई अत्यधिक लोभी, कोई अत्यधिक क्रोधी तो कोई अत्यधिक अहंकारी….
इन सभी तत्वों पर जो नियंत्रण kar लेता है वाही साधू है वही संत…याद रहे नियंत्रण न की दमन|
दमन करने से विकृति उत्पन्न होती है…
आश्रम बापू के द्वारा जो हुआ वो क्रोध के दमन का ही परिणाम था….
जय जय
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